वांछित मन्त्र चुनें

अच्छा॒यं वो॑ मरुतः॒ श्लोक॑ ए॒त्वच्छा॒ विष्णुं॑ निषिक्त॒पामवो॑भिः। उ॒त प्र॒जायै॑ गृण॒ते वयो॑ धुर्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

acchāyaṁ vo marutaḥ śloka etv acchā viṣṇuṁ niṣiktapām avobhiḥ | uta prajāyai gṛṇate vayo dhur yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

पद पाठ

अच्छ॑। अ॒यम्। वः॒। म॒रु॒तः॒। श्लोकः॑। ए॒तु॒। अच्छ॑। विष्णु॑म्। नि॒सि॒क्त॒ऽपाम्। अवः॑ऽभिः। उ॒त। प्र॒ऽजायै॑। गृ॒ण॒ते। वयः॑। धुः॒। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:36» मन्त्र:9 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:2» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:9


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

कौन विद्वान् सेवा करने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) विद्वान् मनुष्यो ! जैसे (अयम्) यह (वः) तुम्हारी (श्लोकः) शिक्षायुक्त वाणी (अवोभिः) रक्षाओं के साथ (निषिक्तपाम्) जो धर्म के बीच अभिषेक पाये हुए हैं उन के रक्षक (विष्णुम्) व्यापक परमेश्वर को (अच्छ, एतु) अच्छे प्रकार प्राप्त हो (उत) और जो (गृणते) स्तुति करनेवाली (प्रजायै) प्रजा के लिये (वयः) जीवन को (अच्छा) अच्छे प्रकार (धुः) धारण करते हैं जैसे (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) सुखों के साथ (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदैव (पात) रक्षा करो, वैसे हम तुम्हारी रक्षा करें ॥९॥
भावार्थभाषाः - जानने की इच्छावालों को वेदवेत्ता ब्रह्म के जाननेवाले अध्यापक और उपदेशकों को प्राप्त होकर परमेश्वर आदि की विद्याओं का संग्रह कर सर्वदैव सब प्रकार से सब की रक्षा और उन्नति बढ़ानी चाहिये ॥९॥ इस सूक्त में विश्वेदेवों के कर्म और गुणों का गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये ॥ यह छत्तीसवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

के विद्वांसस्सेवनीया इत्याह ॥

अन्वय:

हे मरुतः ! यथाऽयं वश्श्लोकोऽवोभिस्सह निषिक्तपां विष्णुमच्छैतूत ये गृणते प्रजायै मह्यं च वयोऽच्छ धुः यथा यूयं स्वस्तिभिर्नस्सदा पात तथा युष्मान् वयं सततं रक्षेम ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अच्छ) (अयम्) (वः) युष्माकम् (मरुतः) विद्वांसो मनुष्याः (श्लोकः) शिक्षिता वाक्। श्लोक इति वाङ्नाम। (निघं०१.११)। (एतु) प्राप्नोतु (अच्छा) सम्यक्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (विष्णुम्) व्यापकं परमेश्वरम् (निषिक्तपाम्) यो धर्मे निषिक्तानभिषेकप्राप्तान् पाति रक्षति तम् (अवोभिः) रक्षादिभिः (उत) (प्रजायै) (गृणते) स्तावकाय (वयः) जीवनम् (धुः) दधति (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥९॥
भावार्थभाषाः - जिज्ञासुभिः श्रोत्रियान् ब्रह्मविदोऽध्यापकानुपदेशकांश्च प्राप्य परमेश्वरादिविद्याः सङ्गृह्य सर्वदा सर्वेषां रक्षणोन्नतिर्वर्धयितव्येति ॥९॥ अत्र विश्वेदेवकृत्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षट्त्रिंशत्तमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जिज्ञासूंनी वेदवेत्त्या, ब्रह्माला जाणणाऱ्या अध्यापक व उपदेशकाद्वारे परमेश्वरी विद्येचे संपादन केले पाहिजे व सदैव सर्व प्रकारे सर्वांचे रक्षण आणि उन्नती केली पाहिजे. ॥ ९ ॥